“मैं इंसान ही जन्मा था मैं इंसान ही मरूंगा”

हर बात में एक कहानी छुपी है जिसके पीछे किरदार छिपे है
अलग-अलग नक़ाब लगाए हुए, छुपाते है अपनी असल शक़्ल को इस क़दर जो
कभी सामना हो खुद का आईने से तो खुद की आँख भी धोखा खा जाये
और नक़ाब ओढ़े हुए किरदार को खुद भी ना पहचान पाए

यही फलसफा है दुनिया का या ये कह लो अब ये नया रिवाज़ है
खुद को इतना बदल डालो के खुद से ही कभी मुलाकात हो जाये जाने-अनजाने
तो खुद को ही खुद का परिचय करवाना पड़ जाये खुद से
खुदा को ढूंढने चले हैं खुदी को ताख पे रख के
खुद को इंसान कहने वालो को इंसानियत खुद ढूंढ रही है दिया लेकर के

सच में बहुत मुश्किल हो चला है अपनी खुद की शख्सियत को मिलावट से बचाकर
ये ज़िंदगी की दौड़ जीत पाना
हाँ ये मैंने कई दफा महसूस किया है जब भी मैं हारा हूँ
मेरे जिस्म पर पड़े ज़ख्मो के निशान तुम देख सकते हो अगर यकीं नहीं हो तो
पर ये तय है के वक़्त की चाल चाहे कैसी ही चल पड़े
मैं कोई नकाबपोश नहीं बनूँगा
मैं इंसान ही जन्मा था मैं इंसान ही मरूंगा

“ऋतेश”

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