"फलक पे आधा चाँद"

"फलक पे आधा चाँद"

फलक पे आधा चाँद लुका-छिपी खेल रहा था बादलों की ओट से
ज़मीं पे लालटेन की लौ लड़ रही थी मद्धम हवा से

सामने बह रही शांत सी नदी में लहरों का एक कारवां गुज़र रहा था बिना रुके-थके
हर इक लहर चल रही थी बड़े कायदे से आगे वाली लहर की ऊँगली थामकर
किसी को आगे बढ़ जाने की कोई जल्दी नहीं थी
गीली ठंडी रेत पे मैं कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें खींच रहा था

जुगनुओं का एक झुण्ड जो सितारों को चिढ़ा रहा था
मानो कह रहा हो के ज़मी का चाँद उनके बीच ही रहता है
मेरे पास में ख़ामोशी का घूंघट ओढ़े मेरी शख्सियत से मिलता-जुलता एक शख्स बैठा था
जिसकी जुल्फें मेरे चेहरे पे थोड़ी-थोड़ी देर में गुदगुदी कर जाती थी

वो परेशां था किसी बात से, मैं परेशां था सिर्फ इसी बात से
कुछ बाल उसके गालों से चिपक रहे थे, शायद वो रोई थी और आंसू पोंछना भूल गई थी
वो मौन थी पर आँखे बोल रही थी उसकी, और मैं सीख रहा था आँखों की भाषा
ताकि समझ सकूँ उसकी ख़ामोशी को भी हमेशा जब भी वो चाहे मुझे चुपचाप कुछ समझाना

थोड़ी ज़िद्दी है जानता हूँ पर ये अच्छा है मेरे लिए
मैं खुद उसकी एक ज़िद बन जाना चाहता हूँ
मैं चुपचाप उसे देख रहा था, रेत पे कुछ लकीरें खींच रहा था
और वो गीली रेत से शायद ख्वाबों के घर की छत ढाल रही थी
कसम से उदासी उसके चेहरे पे, दिल में कई ज़ख्म कर जाती है|

“ऋतेश “

1 comment
  1. Shreya
    Shreya
    October 18, 2014 at 9:42 pm

    Wow…. 😉

    Reply
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *