"सरोज दिन-रात बुनती है कुछ मीठे सपने"

"सरोज दिन-रात बुनती है कुछ मीठे सपने"

सरोज दिन-रात बुनती है कुछ मीठे सपने
फिर उधेड़ती है, वापस बुनती है
और थोड़ी देर में भूल जाती है सपनों के ऊन का गोला कहीं
फिर झुंझलाती है, और बेरंग हो जाते हैं उसके सारे सपने…………………………………………………….

मैंने बेहद करीब से देखा है, इक मासूम सा बचपन अभी भी तैरता है उसकी आँखों में
जो हँसता है तो इक कस्तूरी फैल जाती है आबो-हवा में
पूरा मौसम बदल जाता है

लोग जाने क्या देखते हैं उसमे, वो मुझे रहस्यों से भरी मोनालिसा दिखती है
जो गिरती है, संभलती है, वापस गिरती है, फिर संभलती है, चलती रहती है
बेनाम रस्ते पे नंगे पाँव, बिना कोई निशान छोड़े हुए

मैं देखता हूँ उसे, देखता रह जाता हूँ, मैं सोचता हूँ, सोचता रह जाता हूँ
उसे और उसकी ज़िद को समझने की कोशिश करता हूँ
उसके चेहरे के राज़ पढ़ने की कोशिश करता हूँ

सरोज दिन-रात पिरोती है कुछ नये सुर
फिर तोड़ती है, वापस पिरोती है
और थोड़ी देर में भूल जाती है पिरोये हुए सुरों का धागा कहीं
फिर आंसू बहाती है, और बिखर जाती है उसकी हर नयी धुन…………………………………………………….

मेरी दुआ है उसके सपनों के ऊन का गोला कहीं गुम ना हो
उसके पिरोये सुरों का धागा टूटने ना पाये कभी
ताकि वो बुनती रहे मीठे सपने हमेशा खुद के लिए, अपने अपनों के लिए
ताकि वो गुनगुनाती रहे प्यारी सी धुन अपने लिए, अपने अपनों के लिए

सरोज दिन-रात बुनती है कुछ मीठे सपने
फिर उधेड़ती है, वापस बुनती है
सरोज दिन-रात पिरोती है कुछ नये सुर
फिर तोड़ती है, वापस पिरोती है…………………………………………………….

“ऋतेश “

1 comment
  1. yaminee
    yaminee
    December 27, 2014 at 6:56 pm

    Superb..

    Reply
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *