"वो रौबदार मूंछो वाला आदमी"

वो रौबदार मूंछो वाला आदमी बड़ा मायूस है
बेटी की विदाई ने उसकी सूखी आँखों को डबा-डब कर दिया है
आखिर बड़े ही नाज़ों से पाला था उसे
अब दूसरे की उंगली थमा दी है उम्र भर के लिए
बेटी कितनी बड़ी हो गई है अब जाके उसे एहसास हुआ
नम आँखों से एक बाप ने उसे अपने से पराया कर दिया है

घर की देहलीज़ लांघी उसने तो सन्नाटा पसर गया
वो हंसी वापस से सुनने को दिल बेक़रार सा है
पापा खाना लगा दूँ, ये आवाज़ आज रसोई से नहीं आई
आज खाना अच्छा नहीं लगा, शायद परोसने में थोड़ी सी मिठास कम रह गई है

बरामदे में लगी आराम कुर्सी पर भी अब वो आराम कहाँ है
अगल बगल से तितली सी गुज़रती, उसकी पायल की झंकार कहाँ है
बचपन उसका कब गुज़र गया, देखते-देखते वक़्त का पता ही नहीं चला
दो हथेलियों में समां जाती थी वो जब उसने पहली बार अपनी आँखे खोली थी
माँ की ममता तो सब पे भारी है, बाप की आँखों में भी अब सावन उतर आया है

वो रौबदार मूंछो वाला आदमी आज मायूस है पर गर्वित भी है
शायद जीवन की असली परीक्षा में वो उत्तीर्ण हुआ है अच्छे अंको से
अपनी ज़िम्मेदारियों से परिपूर्ण अब वो नियति में छुपे सुनहरे कल को निहार रहा है
उसने आम के नन्हे पौधे लगाये थे बरसों पहले
ढलती उम्र में शायद आम ही मिले उसे, उसपे वो रौबदार मूंछे बड़ी अच्छी लगती हैं मुझे बचपन से

“ऋतेश””

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