"छुपा लूंगा दर्द के हर निशाँ"

छुपा लूंगा दर्द के हर निशाँ
और डाल दूंगा मिट्टी की इक मोटी परत उनपे
वापस बोऊंगा नए बीज कल्पनाओं के, सपनों के
खड़ा करूँगा इक नया पेड़, भले इक सदी खर्च दूँ फिर से
पर मैं नहीं पहनूंगा कोई नक़ाब
मैं नहीं बदलूंगा वक़्त की किसी चाल पे
बनाऊंगा इक नया आशियाँ इक नया मकाँ
छुपा लूंगा दर्द के हर निशाँ
और डाल दूंगा मिट्टी की इक मोटी परत उनपे …………….

भरूंगा कुछ तीखे चटख रंग वापस, ज़िंदगी की कैनवास पे
और समेट लूंगा सारे बिखरे पन्नें, ज़िंदगी की किताब के
जोडूंगा वापस से टूटे हुए सारे सुर
लिखूंगा इक नया गीत, जो गूंजेगी हर दिशा
छुपा लूंगा दर्द के हर निशाँ
और डाल दूंगा मिट्टी की इक मोटी परत उनपे …………….

लूंगा उधार आसमाँ से थोड़ा नीला रंग
अग्नि से थोड़ा सा प्रकाश
हवा से थोड़ा प्राण का संचार
नीर से थोड़ा चरित्र और बहाव
और मिट्टी से थोड़ा आकार
ताकि दे सकूँ स्वरुप इक महामानव को
जो चुकाएगा भविष्य में, प्रकृति से लिए मेरे सारे उधार
छुपा लूंगा दर्द के हर निशाँ
और डाल दूंगा मिट्टी की इक मोटी परत उनपे …………….

“ऋतेश “

One thought on “"छुपा लूंगा दर्द के हर निशाँ"

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *